गुलाम भारतमें राजाओं को
निकम्मा, नेताओं को अहमक, नौकरशाही को दम्भी और अदालतों को अभिजात्य बनाने की औपनिवेशिक
सफलता के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारतीयों को शासन के अयोग्य करार
दे दिया था, जिसकी औपचारिक पुष्टि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति
आयोग को रद्द करने के आदेश से हो गई। लोकतंत्र के तीन खम्बों- न्यायपालिका, कार्यपालिका
और विधायिका की असफलता की महागाथा का आदेश पारित करते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों
ने देश को यह संदेश भी दे दिया कि अब वे पंच-परमेश्वर नहीं रहे। इस आदेश से संसद के
दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित और 20 राज्यों द्वारा अनुमोदित एनजेएसी कानून
को असंवैधानिक घोषित कर कॉलेजियम प्रणाली को फिर बहाल कर दिया। विश्व के अधिकांश बड़े
देशों में जज ही जजों को नियुक्त नहीं करते। पिछले 22 वर्षों से भारत में इस व्यवस्था
के दुष्परिणामों की एक बानगी यह है कि देश के 13 हाईकोर्ट में 52 प्रतिशत या 99 जज
बड़े वकीलों और जजों के रिश्तेदार हैं। संविधान के अनुच्छेद 124 के अनुसार आजादी के
बाद 1993 तक राष्ट्रपति चीफ जस्टिस के साथ मशविरा कर जजों की नियुक्ति करते थे। हालांकि,
आपातकाल के दौरान जरूर इंदिरा गांधी ने न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति कर अधिनायकवादी
अधिकारों के लिए इस संतुलन को नष्ट कर दिया था।
इंदिरा गांधी की मृत्यु,
बोफोर्स घोटाले से राजीव गांधी और कांग्रेस का राजनीतिक हृास, बाबरी मस्जिद विवाद और
गठबंधन से नरसिंह राव की मजबूरियों से जब सरकार कमजोर हो गई तब 1993 में सुप्रीम कोर्ट
द्वारा संविधान की मनमाफिक व्याख्या कर जजों की नियुक्ति का पूर्ण नियंत्रण ले लिया
गया। कॉलेजियम प्रणाली के तहत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में पांच
वरिष्ठतम जजों की कमेटी (कॉलेजियम) सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति
तथा तबादले का फैसला कर उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज देती है। संविधान समीक्षा
आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग और संसदीय स्थायी समितियों तथा दिवंगत न्यायमूर्ति जेएस
वर्मा एवं न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर ने कॉलेजियम प्रणाली पर पुनर्विचार कर स्वतंत्र
न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का सुझाव दिया था, जिससे नियुक्तियों में जजों और नेताओं
का अनाधिकृत हस्तक्षेप खत्म हो सके। प्रस्तावित एनजेएसी कानून में कुल छह सदस्यों में
तीन सुप्रीम कोर्ट के जज होने थे। अन्य तीन सदस्यों में कानून मंत्री (कोर्ट ने उन्हें
संसद नहीं बल्कि सरकार का राजनीतिक प्रतिनिधि माना) और दो अन्य सदस्यों की योग्यता
के विस्तृत विवरण होने की कमी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे न्यायिक स्वतन्त्रता
में दखल तथा संविधान के मौलिक ढांचे से छेड़खानी मानते हुए कानून रद्द कर दिया।
संविधान पीठ का यह फैसला
भारत के विफल लोकतंत्र का मर्सिया ही लगता है। संविधानपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जेएस
खेहर ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा आपातकाल की आशंका पर विस्तृत
चर्चा करते हुए, संवैधानिक पदों और संस्थानों में राजनीतिक हस्तक्षेप और एकाधिकरण की
प्रवत्ति पर चिंता जताई। कोर्ट के अनुसार भारतीय संविधान अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली
की तरह नहीं है, जहां सत्ता बदलने पर मनमाफिक तरीके से राज्यपाल, नौकरशाही और अन्य
संस्थानों में नियुक्ति और बदलाव का पूर्ण अधिकार मिल जाएं। अन्ना हजारे के नेतृत्व
में हुए आंदोलन की विफलता की चर्चा करते हुए कोर्ट ने कहा कि देश में सिविल सोसायटी,
जन-अधिकारों के संरक्षण और भ्रष्टाचार रोकने के लिए अभी परिपक्व नहीं हो पाई है।
भ्रष्टाचार के खात्मे पर
संसद में दिसंबर 1963 को हुई बहस में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि सिंहासन और
व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है उतना दुनिया
के इतिहास में कहीं नहीं हुआ। जज कुरियन जोसेफ ने माना कि वह कॉलेजियम प्रणाली विफल
हो गई, जहां दिशा-िर्देशों की अनदेखी कर चहेते और नाकाबिल जजों का चयन होता है। पूर्व
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भरूचा ने 15 वर्ष पहले कहा था कि हाईकोर्ट के 20 फीसदी जज भ्रष्ट
हैं वहीं, पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने चीफ जस्टिस सहित 50 फीसदी जजों को भ्रष्ट
करार दिया। पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ पूर्व चीफ जस्टिसों
को भ्रष्ट बताते हुए हलफनामा ही दायर कर दिया परंतु सुप्रीम कोर्ट और सरकार प्रभावी
कार्यवाही (इसका एक कारण जजों को हटाने के लिए महाभियोग की जटिल प्रक्रिया भी है) करने
में विफल रही, क्योंकि गलत जजों की नियुक्ति में दोनों शामिल थे। काटजू के अनुसार आईबी
की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद तमिलनाडु में डीएमके के भ्रष्ट नेता को जमानत देने वाले
व्यक्ति को यूपीए सरकार द्वारा हाईकोर्ट का जज बनवाकर सुप्रीमकोर्ट के तीन पूर्व प्रधान
न्यायाधीशों से अनुचित सेवा-विस्तार दिलवा दिया गया। सीजर की पत्नी के शक से ऊपर होने
का मुहावरा घिसा-पिटा हो गया है पर क्या कम से कम सीजर को तो संदेह से परे नहीं होना
चाहिए?
जज चेलमेश्वर ने माना कि
सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायपालिका ही समाज में भरोसा कायम रखने का काम कर सकती है
परंतु देश की अदालतों में लंबित 3.5 करोड़ से अधिक मुकदमों का बढ़ता ढेर जजों की दक्षता
का प्रमाण तो नहीं देते। जज कुरियन जोसेफ ने कहा कि न्यायिक प्रणाली लाइलाज नहीं हुई
है। उन्होंने इसे दुरुस्त करने के लिए ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका का सुझाव दिया,
जिसका प्रयोग रूस में कम्युनिस्ट व्यवस्था में पारदर्शिता और पुनर्निर्माण के लिए मिखाइल
गोर्बाचेव द्वारा किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के तहत अधिकांश सूचनाओं से
अपने को अलग रखा है तो फिर ग्लासनोस्त कैसे आएगा तो क्या अब 3 नवंबर में इस मामले की
बहस का सीधा टीवी प्रसारण होना चाहिए, क्योंकि जनता को सच जानने का मूल अधिकार है।
मामले में बहस के दौरान अटॉर्नी जनरल ने जजों की गलत नियुक्ति के कई आरोप लगाए थे,
अब उस पर श्वेतपत्र जारी हो जिस पर पेरेस्त्रोइका के तहत सभी दागी जजों के विरुद्ध
सुप्रीम कोर्ट निर्णायक कार्यवाही करें। एनजेएसी मामले में छह महीने के भीतर सुनवाई
कर निर्णय देने वाले जज, आम जनता के मामलों को सालों-साल क्यों लटकाते हैं? कातिलों
के लिए आधी रात में सुनवाई करने वाले जजों को 4 लाख गरीब अनपढ़ कैदियों को जेल से निकालने
के लिए समय क्यों नहीं है? मी लार्ड्स को अब हम लोग (वी पीपुल) से भी जुड़ना पड़ेगा
वरना संविधान की संकल्पना को गांधी के अनुसार बदलना पड़ेगा, जिन्होंने कहा था कि अदालतें
हों तो हिंदुस्तान में गरीबों को बेहतर न्याय मिल सकता है।
(विराग गुप्ता, दैनिक भास्कर)
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