देश की आजादी के
बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी सरकार पर हाल ही में नेताजी सुभाष चंद्र
बोस के रिश्तेदारों की जासूसी करने के आरोप लगे। इससे हर बात में साजिश ढूंढने वालों
और पार्टियों के प्रवक्ताओं को अपना यह अजेंडा आगे बढ़ाने का मौका मिल गया कि नेताजी
दरअसल पंजित नेहरू से ज्यादा देशभक्त थे। 'देखा, मैंने कहा था न' तकिया कलाम इस्तेमाल
करने वालों, जिनमें कुछ बुद्धिजीवी भी हैं, ने मीडिया और राजनीतिक गलियारों को इन आरोपों
को लेकर हर तरह से बिजी रखा।
हर दिन कोई न कोई
यह मालूम होने का दावा करता है कि बोस के साथ क्या हुआ था और लगे हाथ इसके लिए नेहरू
व कांग्रेस को जिम्मेदार बता देता है। इस नई अवधारणा के खिलाफ आने वाली किसी बात या
विचार को तुरंत ही देशद्रोहियों का काम करार दिया जाने लगा है। मगर नेताजी के प्रशंसक
नाजी जर्मनी और जापान के साथ हुई उनकी संधि को नजरअंदाज कर देते हैं।
नेताजी ने लंदन से
1935 में पब्लिश हुई अपनी किताब 'IndianStruggle'
में लिखा है कि भारत को ऐसा पॉलिटिकल सिस्टम चाहिए, जिसमें फासीवाद और कम्यूनिज़म
का मेल हो। इसे उन्होंने साम्यवाद कहा था। नेताजी ने 1935 में रोम की यात्रा की थी,
ताकि अपनी किताब की कॉपी इटली के तानाशाह मुसोलिनी को भेंट कर सकें। नेताजी उसे बहुत
पसंद करते थे और उसके 'आदर्शों' पर आजीवन चलना चाहते थे।
बोस थोड़े प्रतिक्रियावादी
विचारों के थे और इसी वजह से महात्मा गांधी और पंडित नेहरू जैसे शांतिवादी नेताओं से
उनकी नहीं बनती थी। मगर इनके बीच टकराव 1935 में नहीं, काफी पहले हो गया था।
बोस ने साल 1928
में कलकत्ता में इंडियन नैशनल कांग्रेस के सालाना अधिवेशन का आयोजन किया था। वहां पर
उन्होंने 2,000 से ज्यादा वॉलनटिअर्स के साथ फुल मिलिट्री स्टाइल में गार्ड ऑफ ऑनर
का आयोजन किया था। इनमें से कुछ अफसरों की यूनिफॉर्म में थे और उनके कंधे पर धातु के
बिल्ले लगे हुए थे। अपने लिए बोस ने कलकत्ता से ऑपरेट करने वाली ब्रिटिश कंपनी से ब्रिटिश
मिलिट्री ऑफिसर की ड्रेस सिलवाई थी। उन्होंने फील्ड मार्शल की बैटन भी ली हुई थी। इस
सेरिमनी में नेताजी ने जनरल ऑफिसर कमांडिंग का टाइटल अपनाया हुआ था। गांधी जी ने हैरान
होकर इस पूरे इंतजाम को 'सर्कस' करार दिया था। मगर बोस का ऐसे शो और सैन्यवाद के लिए
प्रेम आगे भी जारी रहा।
1938 में हरिपुरा
में हुए कांग्रेस के 51वें अधिवेशन के दौरान बोस प्रेजिडेंट थे। उन्होंने अपने लिए
बहुत बड़ी सेरिमनी का आयोजन किया था, जो ठीक वैसी ही थी, जैसी सेरिमनी भारतीय राजा-
महाराजा जीत के बाद आयोजित करते थे। नेताजी ने कथित रूप से 51 बैलों द्वारा खींचे जा
रहे रथ पर सवार होकर एंट्री की थी। 2 घंटे तक जुलूस निकला था, जिसके साथ भगवा साड़ियां
पहने 51 लड़कियां चल रही थीं। 51 बैंड बाजों के साथ चल रहा जुलूस 51 गेटों से होकर
गुजरा था। साउथ ईस्ट एशिया में जब उन्होंने इंडियन नैशनल आर्मी और इंडियन इंडिपेंडेंस
लीग का नियंत्रण संभाला, तब भी उन्होंने ऐसे ही शो किए।
अक्टूबर 1943 में
बोस ने प्रविज़नल गवर्नमेंट ऑफ फ्री इंडिया (अर्जी हुकूमत-ए- आजाद हिंद ) का ऐलान किया।
उन्होंने अपने आप ही हेड ऑफ स्टेट यानी प्राइम मिनिस्टर, युद्ध मंत्री और विदेश मंत्री
की उपाधियां दे दीं। वह चाहते थे कि भारत आजाद हो, तो पहली वाली उपाधि उनके पास रहे।
उन्होंने सभी भारतीयों से कहा कि वे समर्पण और निष्ठा जताएं और जो कोई उनका विरोध करेगा,
उसे उनकी आर्मी या सरकार मार सकती है (कुछ घटनाएं बताती हैं कि कई लोगों को टॉर्चर
किया गया था और कुछ को मौत के घाट भी उतार लिया गया था। यह काम या तो बोस के ऑर्डर
पर या उनकी जानकारी में रहते हुए किया गया था)।
इंडियन नैशनल आर्मी
का ऐलान ऐसा था, "अगर कोई शख्स अर्जी हुकूमत-ए-आजाद हिंद, इंडियन नैशनल आर्मी
या हमारी साथी निपों आर्मी (जापानी सेना) के इरादों को नहीं समझता है, तो इससे भारत
को आजाद करवाने में मुश्किल होगी। इसलिए उसे मार डाला जाएगा या सरकार, इंडियन नैशनल
आर्मी या निपों आर्मी के क्रिमिनल लॉ के आधार पर कड़ी सजा दी जाएगी।"
इसी साल सिंगापुर
में दिए अपने भाषण में बोस ने कहा कि आजादी के बाद भारत को 20 साल तक क्रूर तानाशाही
की जरूरत होगी। उस वक्त सिंगापुर डेली और संडे एक्सप्रेस (अब बंद हो चुका है) ने उनका
भाषण छापा था। इसमें बोस के हवाले से लिखा था,
'जब तक थर्ड पार्टी यानी ब्रिटिश हैं, लड़ाई खत्म नहीं होगी। यह बढ़ती चली जाएगी।
वे तब ही जाएंगे, जब तक भारत पर कोई मजबूत तानाशाह 20 साल तक भारत पर राज करेगा। भारत
में ब्रिटिश राज खत्म होने के कम से कम कुछ साल तक तानाशाही रहनी चाहिए। कोई और संविधान
इस देश को संवार नहीं सकता। भारत के लिए यह जरूरी है कि शुरुआत तानाशाह से हो।' लेकिन
लग रहा था कि इस वक्त तक नेताजी ने फासीवाद के बजाय नाजीवाद को पसंद करना शुरू कर दिया
था। तोक्यो यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के बीच 1944 में दिए भाषण में उन्होंने कहा था
कि भारत को नैशनल सोशलिज़म (नाजीवाद) और कम्यूनिज़म के बीच की फिलॉसफी चाहिए।'
जाहिर है, नेहरू
और नेताजी के बीच थोड़ी- बहुत जो मित्रता रही होगी, वह इस वक्त तक खत्म हो चुकी थी।
बोस अपनी कल्पना हिटलर और मुसोलिनी जैसे वर्ल्ड लीडर्स में करते थे, जबकि पंडित नेहरू
इन दोनों नेताओं और उनकी विचारधाओं से नफरत करते थे। वह फासीवाद को नापसंद करते हुए
कह चुके थे कि फासीवाद और कम्यूनिज़म के बीच का कोई रास्ता नहीं हो सकता। उनका मानना
था कि फासीवाद दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था का आधार है।
फिर भी, जब अगस्त
1945 में संदिग्ध एयर क्रैश में बोस की 'मौत' की खबर आई, पंडित नेहरू ने अपने पूर्व
सहयोगी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, 'देश की आजादी के मकसद के लिए उन्होंने अपनी
जिंदगी अर्पित कर दी। वह न सिर्फ बहादुर थे, बल्कि आजादी से प्यार करते थे। उनका मानना
था कि सही या गलत, जो कुछ उन्होंने किया, देश की आजादी के लिए किया। मैं वैसे तो कई
मायनों में उनसे सहमत नहीं था और उन्होंने हमें छोड़कर फॉरवर्ड ब्लॉक बना लिया था,
फिर भी उनकी नेक नीयत पर कोई शक नहीं कर सकता। उन्होंने अपने तरीके से देश की आजादी
के लिए आजीवन संघर्ष किया ।
नव भारत टाइम्स
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